वृद्धि व विकास में अंतर
1. वृद्धि से आशय मात्रात्मक या परिमाणात्मक परिवर्तन से है जबकि विकास से आशय परिमाणात्मक के साथ-साथ गुणात्मक परिवर्तन से है।
2. वृद्धि से आशय सामान्यतः शारीरिक परिवर्तन से है जबकि विकास से आशय शरीर के विभिन्न, शारीरिक, मानसिक तथा व्यावहारिक संगठन से है।
3. वृद्धि का मापन सही से किया जा सकता है लेकिन विकास को मापना कठिन है बल्कि उसका अवलोकन करते हैं।
4. वृद्धि का अर्थ संकुचित है जबकि विकास का अर्थ व्यापक है।
5. वृद्धि एक समय के बाद रुक जाती जबकि विकास निरंतर चलता रहता है।
विकास की अवस्थाएँ
मनुष्य का जीवन माँ के गर्भ से प्रारंभ होता है तथा जन्म के बाद सामान्यतः विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए मृत्यु को प्राप्त करता है। इन अवस्थाओं के बारे
में अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों की अलग-अलग राय है। रॉस व फ्रॉयड ने 5 अवस्थाएं बताई हैं, जबकि कॉलसेनिक 10 तथा पियाजे ने 4 व ब्रूनर ने तीन अवस्थाएं बताई हैं। भारत में सामान्यतः विकास के अवस्था को निम्न विभाजन हैं
1. पूर्व प्रसूतिकालः यह अवस्था के गर्भधारण से लेकर जन्म तक की होती है।
2.शैशवास्थाः यह अवस्था जन्म से लेकर 2 साल (वर्ष) तक की होती है।
3. बाल्यावस्था (a) प्रारंभिक बाल्यावस्था (Early Childhood) 2 से 6 साल
(b) उत्तर बाल्यावस्था (Later Childhood)- 6 से 12 साल
4. किशोरावस्था: 12 साल से 18 साल
5. युवावस्थाः 18 वर्ष से 25 वर्ष तक (वर्तमान में 30 वर्ष)
6. प्रौढ़ावस्थाः 30 वर्ष से 60 वर्ष
7. वृद्धावस्थाः 60 वर्ष से मृत्यु तक
शिक्षा मनोविज्ञान व बाल मनोविज्ञान के लिए सभी अवस्थाओं का अध्ययन महत्त्वपूर्ण नहीं है।
प्रमुख अवस्थाएँ
1. शैशवावस्था
2. बाल्यावस्था
3. किशोरावस्था
शैशवावस्था
जन्म से लेकर 2 वर्ष तक की अवस्था है।
पुनरावृत्ति, प्रयास व त्रुटिपूर्ण व्यवहार, वस्तु की प्रधानता,
छोटे-छोटे शब्दों का प्रयोग आदि।
बाल्यावस्था
प्रारंभिक बाल्यावस्था
यह अवस्था 2 वर्ष से 6 वर्ष तक की मानी जाती है। इस अवस्था में बालक का अधिकांश व्यवहार जिद्दी, विरोधात्मक, आज्ञा न मानने वाला होता है बालक खिलौने से खेलना ज्यादा पसंद करता है, बालकों में जिज्ञासा बहुत होती है। बालकों में शारीरिक परिवर्तन भी तेजी से होते हैं। नकल करने की प्रवृत्ति बालकों में
अत्यधिक देखी जाती है। बालक अकसर कुछ-न-कुछ बोलते रहते हैं, भाषा का विकास होता है। बालकों में जो संवेग देखने को मिलते हैं, वो है-क्रोध, डर, डाह, खुशी, दुःख, उत्सुकता, आदि। बालकों को लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है। अपनी उम्र के बच्चों के साथ इनका दोस्ताना संबंध बढ़ता है।
उत्तर बाल्यावस्था
यह अवस्था 6 वर्ष से 12 (कुछ मनोवैज्ञानिक इसे 6 से 11 साल भी मानते हैं) वर्ष तक की मानी जाती है। यह अवस्था है जिसमें बालक स्कूल जाना प्रारंभ कर देते हैं। बालक शरारत अधिक करते हैं, समूह पसंद करते हैं, संवेग की अभिव्यक्ति बदल जाती है, बालक स्वयं से संबंधित बातें अधिक करता है, बालकों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बनी रहती है।
किशोरावस्था
यह अवस्था 12 वर्ष से लेकर 18 वर्ष के बीच की मानी जाती है। इस अवस्था में किशोरों में महत्त्वपूर्ण शारीरिक, सामाजिक, संवेगात्मक, संज्ञानात्मक विकास होते हैं। इस अवस्था में ऊँची आकांक्षाएँ, कल्पनाएँ, नयी आदतें, व्यवहार में भटकाव आदि किशोरों में देखने को मिलता है।विकास को प्रभावित करने वाले कारक
बालक के विकास को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित प्रमुख कारक हैं
1. वंशानुक्रमः बालक का रंग, रूप, लंबाई, शारीरिक विकास, बुद्धि, तार्किक क्षमता तथा स्वास्थ्य पर भी आनुवंशिकता का प्रभाव पड़ता है।
2. पौष्टिक आहारः शिशु जब गर्भ में होता है तब से ही माँ को पौष्टिक आहार लेना चाहिए और जन्म के बाद यदि बालक को पौष्टिक आहार मिलेगा तभी उसका शारीरिक व मानसिक विकास समुचित ढंग से हो पाएगा।
3. बुद्धिः तीव्र बुद्धि बालकों में सामाजिक, संवेगात्मक, संज्ञानात्मक विकास अधिक देखा जाता है। मंद बुद्धि या औसत से कम बुद्धि वाले बालकों में उपरोक्त विकास अपेक्षाकृत कम होते हैं।
4. अंतःस्त्रावी ग्रंथियों का प्रभाव: अंतःस्रावी ग्रंथियों से निकलने वाले स्राव बालक के शारीरिक व मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं।
5. लैंगिक भिन्नताः बालकों की अपेक्षा बालिकाओं का मानसिक विकास पहले पूर्ण होता है। परिपक्वता के लक्षण भी बालिकाओं में बालक के अपेक्षा जल्दी विकसित होने लगते हैं।
6. वातावरणः बालक जिस भौतिक परिवेश में रहता है उस परिवेश के मौसम, तापमान, वहाँ की ऊँचाई, समाज, संस्कृति आदि का भी प्रभाव बालक के संवेगात्मक, सामाजिक, संज्ञानात्मक, शारीरिक विकास पर पड़ता है। अधिगम और विकास जटिल रूप में अंत:संबंधित हैं। वातावरण समृद्ध और विविधतापूर्ण हो तो विकास और अच्छा होता है।
उपरोक्त के अलावा बालक के विकास को प्रजाति, धर्म, रोग आदि भी प्रभावित करते हैं।
मानव विकास के विभिन्न पक्ष
मानव के वृद्धि व विकास के महत्त्वपूर्ण पक्ष निम्न हैं
1. शारीरिक विकास
2. मानसिक विकास
3. सामाजिक विकास
4. संवेगात्मक विकास
5. क्रियात्मक विकास
6. नैतिक विकास
7. संज्ञानात्मक विकास
शैशवावस्था और शारीरिक विकास
शारीरिक विकास की दृष्टि से शैशवावस्था विकास की महत्त्वपूर्ण अवस्था है। शिशु का शारीरिक विकास यद्यपि जन्म से पूर्व गर्भावस्था में ही प्रारंभ हो जाता है शारीरिक विकास तात्पर्य शरीर के अंगों में वृद्धि, उनकी परिपक्वता एवं क्रियाशीलता से होता है। शैशवावस्था में शरीर के विभिन्न अंगों का विकास निम्नलिखित रूपों में होता है
1. आकार एवं भारः शैशवावस्था की संपूर्ण अवधि में बालक की लंबाई बालिका की लंबाई से अधिक रहती है। जन्म के समय शिशु की लंबाई प्रायः 51 सेमी होती है जो 6 वर्ष के अंत तक 108 सेमी होती है जो 6 वर्ष के अंत तक 108 सेमी तक हो जाती है। जन्म के समय शिशु का भार 3 किग्रा. होता है। प्रथम छः माह में दुगना
अर्थात् 6-7 किग्रा. हो जाता है और एक वर्ष के अंत तक तीन गुना भार हो जाता है। इस अवस्था के अंत तक यह भार 5 से 6 गुना तक हो जाताहै। 2. मांसपेशियाँ एवं हड्डियाँ: नवजात शिशु को मांसपेशियों के भार में भी धीरे-धीरे आयु के साथ वृद्धि होती है। शिशु की बाहों एवं भागों का विकास भी इस अवस्था में तीव्र होता है। प्रथम दो वर्षों में भुजाएँ दोगुनी तथा टांगें डेढ़ गुनी हो जाती हैं। मांसपेशियाँ काफी दृढ़ हो जाती हैं। शिशु के हृदय की धड़कन अनियमित होता है और उम्र बढ़ने के साथ धड़कन में स्थिरता आ जाती है।